बीजेपी में रीजेंट लीडरशीप का जोखिम ?
अंग्रेजों ने अपनी नीति को अमली जामा पहनाने भारतीय राजे-रजवाड़ों में अपने रेजीडेंट नियुक्त कर दिये थे। ऐसा ही कुछ संघ ने रेजीडेंट लीडरशीप लांच कर भाजपा को आफत में डाल दिया है। पहले ही भाजपा आज तक अपने जनाधार वाले नेताओं को पचा नहीं पायी। कल्याण सिंह, बाबूलाल मरांडी, उमा भारती के बाद अब नरेंद्र मोदी निशाने पर है। वहीं वसुंधरा राजे सिंधिया और येदुरप्पा आलाकमान से सीधे जा भिड़ने से कोई गुरेज नहीं कर रहे हैं। जन नेताओं को बढ़वा नहीं देकर बीजेपी में जो जोखिम लिया जा रहा है, इससे पुराने कार्यकर्ताओं में पनप रही निराशा पार्टी में शिथिलता ला रही हैं। सबसे बढ़कर तो रेजीडेंट लीडरशीप राजनीतिक नेतृत्व की मूल अवधारणा के ही विपरित है।
पहले तो आरएसएस ने नितिन गडकरी को बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बतौर रीजेंट बनाकर दिल्ली भेजा। फिर अपनी इसी नीति को आगे बढ़ाते हुए मध्यप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, उत्तरांचल समेत दूसरे राज्यों में भी अपने रीजेंटों को संगठन के क्षत्रप बनाकर बिठा दिया। शायद इसके पीछे संघ की सोच रही हो कि भाजपा में अमरबेल का रूप ले रही गुटबाजी को रोकने में इससे काफी मदद मिलेगी। साथ ही ही यें रेजीडेंट कैप्टन के रोल में होंगें, लीडर के नहीं। इनसे अपेक्षा की गई थी कि ये रेजीडेंट मैदानी कार्यों में सीधे-सीधे भाग लेने की चेष्टा नहीं करेंगे। केवल सभी को संगठन के काम का बंटवारा करेंगे। इससे पार्टी में आपसी प्रतिस्पर्धा के चलते किसी भी योग्यता की उपेक्षा नहीं होंगी। बिना किसी लागलपेट के सबकों काम का समान अवसर मिलेगा। लेकिन-सत्ता पाई, काहे मद नाहीं। खेल भावना लेकर भेजे ये रीजेंट कप्तानी करेने की बजाय लीडर बनने लगें। मैदानी कामों में सीधे भाग लेकर खुद ही काम संभालने लगें। यहीं नहीं तपा-तप बयानबाजी भी उनकी आदत में शुमार हो गया। कभी-कभी तो ऐसा लगने लगता है कि कोई ऐसा दिन न आ जाये जब वह नेता पद की मांग करने लगें। शायद रीजेंटों ज्ञान नहीं रहा कि नेतृत्व की राह प्रभाव की मांग करती करती हैं, जो जमीन से ऊपर उठते हुए लंबे समय बाद ही क्रिएट होता है।
बस यहीं वो आभास है जिसने बीजेपी में अंदरूनी उबाल ला दिया है। नेताओं को लगने लगा है कि 2014 के आम चुनावों में रीजेंट लीडरशीप के बलबूते दिल्ली फतह करना दुस्कर है। शुरू से ही गडकरी की अप्रत्याशित नियुक्ति ने सबकों विस्मय में डाल दिया था। लेकिन तब 2009 की हार के आघात से परेशान माहौल में इस अवधारणा को मन मसोसकर मान लिया गया। अब 2014 के आम चुनाव की रणभेरी बजने वाली है, तो रीजेंट लीडरशीप के विरोध में स्वर मुखर हो चुके हैं। ये रीजेंट, जिनकी नियुक्ति का आधार केवल संघ के प्रति निष्ठा था, कसौटी पर खरे नहीं उतरें हैं। ये पार्टी की लोकप्रियता में कोई विशेष बढ़ोत्तरी नहीं कर पायें। और न ही इनके कार्यकाल में हुए चुनावों में कोई अतिरिक्त रिजल्ट फेवर में आयें।
अब ऐसे में पार्टी के लिए अध्यक्ष और नेता की तलाश ने पार्टी में उथल-पुथल मचा रखी है। भाजपा में काम कर रही दूसरी पीढ़ी गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी में अपने भावी नेता बतौर प्रधानमंत्री को तलाशने लग गए हैं। इससे वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और उनके सिपहसालारों की भौहें तन गई हैं। एक ओर संघ ने रीजेंट लीडरशीप लांच कर बीजेपी को तो धर्म संकट में डाल रखा है। दूसरी ओर रीजेंट लीडरशीप लांच कर भारी जोखिम ले लिया है। जिसकी सफलता गहरे संदेह के घेरे में आती है। ऐसे हालातों में होता यू कि अध्यक्ष के लिए पहली पीढ़ी के किसी अनुभवी ऊर्जावान नेता का नाम आगे बढ़ाया जाता। और प्रधानमंत्री के पद की दावेदारी के चयन का आधार जनता में नेता की पैठ मात्र होता। ये स्वस्थ परंपरा पार्टी को लंबा अमरत्व देती। जिसके बलबूते संघ को अपनी रीति-नीति को बढ़ावा देना सरल होता। आज जनता अन्य सभी बातों को गौण मान विकास को अहम मान रही हैं। ऊपर से देश में भ्रष्टाचार और महंगाई से मची हाहाकार। ऐसे में बीजेपी को ही नहीं देश को भी एक ऐसे दबंग राहगीर की तलाश है, जो विकास के बलबूते सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तक पहुंचता हो।
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