सारी दुनिया में संस्कृति षब्द को परिभाषित करने की अनूठी कोषिषें हुईं। हारवर्ड यूनीवर्सिटी पेपर्स में क्रोबर और क्लूकाने जैसे विद्वानों ने संस्कृति की कोई सवा सौ परिभाषाओं का जिक्र किया। पर पष्चिम के प्रख्यात कवि मैथ्यू आरनाल्ड की व्याख्या भारतीय संस्कृति के करीबी लगती है। मैथ्यू के मुताबिक जीवन में प्रकाष और कोमलता (लाइट और स्वीटनेस) की लब्धि ही संस्कृति है। भारत का संस्कृति षब्द संस्कृत भाषा से आया। इसका अर्थ परिष्कृत/परिमार्जन/षुद्धि आदि लगाया जाता है। दरअसल भारत का राष्ट्रजीवन किसी भी उपलब्धि पर जड़ और संतुष्ट नहीं हुआ। ईष्वर पर भी नहीं। ब्रह्म जैसे परिपूर्ण सत्यों को पाकर भी भारत सत्य का खोजी ही बना रहा। दुनिया का सम्पूर्ण ज्ञान एक साथ एक जगह लेकर ऋग्वेद आया। घटिया मांगों की इच्छाएं और सत्य प्राप्ति की मुमुक्षा एक साथ एक ही जगह ऋग्वेद में मौजूद हैं। तीन वेद और आये। पूर्ण विराम की बात तो दूर भारत ने अर्द्धविराम की भी देरी नहीं की। ब्राह्मण गं्रथ आये। उपनिषद् आये। ब्रह्म सूत्र आया। आरण्यक आये। किसी ने ईष्वर माना। किसी ने ईष्वर जाना। किसी ने कुछ भी नहीं माना। पुराण आये। गौतम बुद्ध और पंतजलि ने ईष्वर को ही खारिज कर दिया। पर भारतीय राष्ट्रीय जीवन ने बुद्ध को ईष्वर का अवतार माना। पंतजलि को प्रज्ञा पुरूष जाना। एच.जी. वेल्स ने बुद्ध के बारे में बड़ी प्यारी टिप्पणी की ‘‘वह सर्वाधिक ईष्वर विहीन व्यक्ति थे। लेकिन ईष्वर के तुल्य।’’
भारतीय संस्कृति एक सतत संगीत है। कह
सकते हैं एक वीणा। वीणा के तार संघर्षण से बजते है। स्वर से स्वर नहीं आते।
बांसुरी में स्वर से स्वर निकलते हैं। तब संगीत आता है। वीणा वाद्य यंत्र है। यहाँ
संघर्षण और छेड़खानी ही संगीत देती है। भारतीय संस्कृति एक वीणा है। भारत ने
इसीलिए ज्ञान, वाणी और विद्या की देवी सरस्वती के
हाथ में वीणा पकड़ाई । वीणा प्रतीक है संघर्षण में संगीत की खोज का। सतत खोजी,
सदा आनन्द अभीप्सु सनातन तार्किक, निरंतर लोकतंत्रीय-भारत की यही प्रकृति संस्कृति कहलाती है। ध्यान रहे
व्यक्ति की तरह देष के भी वैषिष्ट्य होेते हैं। व्यक्ति के वैषिष्ट्य व्यक्ति का
व्यक्तित्व बनते हैं। राष्ट्र के वैषिष्ट्य राष्ट्र का राष्ट्रीयत्व बनते हैंै।
भारत का वैषिष्ट्य भारत की यही सनातन संस्कृति है। इसीलिए भारतीय राष्ट्र का प्राण
संस्कृति है। राष्ट्र की काया में संस्कृति का प्राण।
हिन्दुत्व किसी कट्टर आस्था का नाम
नहीं है। यह जगत की कोटि-कोटि विविधताओं और सहस्त्रों भिन्न-भिन्न आयामी किरणों ,
सुरों गीतों का सहज स्वीकार है। जो सृष्टि को उसके सभी
रंगों, सभी रूपों और सभी आयामों में जस का तस
स्वीकार करता है वही हिन्दू। मुक्त आकाष जैसा विराट् चित्त, जहाँ टिमटिमाते नन्हें नक्षत्र, चमकते
सप्तऋषि और धीरज देती आकाष गंगा एक जगह पाती है, ऐसा चित्त हिन्दू कहलाता है और
ऐसी प्रकृति-संस्कृति ही हिन्दुत्व। सो यही हमारे राष्ट्र की आत्मा है। इसलिए
हमारा राष्ट्र एक सांस्कृतिक आत्मा से युक्त है। इसीलिए हमारा राष्ट्र सांस्कृतिक
राष्ट्र ही है। हिन्दू राष्ट्र ही। हिन्दू राष्ट्र अविरोधी होता है। वैसा ही है भी
अपना यह राष्ट्र।
हिन्दुत्व मजहब नहीं है। यह समग्रता
का स्वीकार है। हिन्दुत्व रिलीजन नहीं । वह एक परिपूर्ण पारदर्षी पुरातन-आधुनिक
जीवन पद्धति है। भारत इसी में जिया है। इसी में जियेगा। इससे कम पर नहीं । राष्ट्र
इससे कम होते ही राज्य हो जाते है। सभी राजनीतिक दलों को भारत राष्ट्र के सदा
सनातन इस प्राणतत्व को स्वीकार कर लेना चाहिए। बाकी मसलों पर विरोध हो। हिन्दुत्व
लोक स्वीकार्य होना ही चाहिए।
‘हिन्दुत्व’ और ‘हिन्दुइज्म’
‘हिन्दुत्व’ और ‘हिन्दुइज्म’ के अर्थ को स्पष्ट करते हुए सर्वाेच्च न्यायालय की संविधान-पीठ ने कहा है
कि:
‘‘कौन हिन्दू है और हिन्दू ‘सम्प्रदाय’ के मुख्य तत्व
क्या हैं, इस बात को हमें सर्वप्रथम निष्चित करना होगा
ताकि विभिन्न पक्षों के बीच इस विवाद को हल किया जा सके। ‘हिन्दू’ षब्द की ऐतिहासिकता और मूल स्त्रोत
के बारे में अनेक विद्वानों में मतभेद हैं, किन्तु सामान्यतः सभी विद्वान इस बात पर सहमत है कि ‘हिन्दू’ षब्द ‘सिन्धु’ नदी से बना है।
इसे ‘इण्डस्’ भी कहते हैं और यह नदी पंजाब से होकर बहती है। मोनियर विलियम्स का कहना है
कि एषिया में पहाड़ों के दर्रे पार करके भारत आने वाले महान् आर्य समुदाय के लोग
सिन्धु नदी के तटवर्ती जिलों में बसे थे। सिन्धु नदी को अब इण्डस् भी कहते है। अरब
लोगों ने इसे हिन्दु उच्चारित किया और अपने आर्य भाइयों को हिन्दू नाम दे दिया।
ग्रीक लागों ने भारत के बारे में सर्वप्रथम अरब लोगों से जाना और इसके कड़े
उच्चारण को छोड़कर हिन्दुओं को ‘इण्डोई’ सम्बोधित किया। (‘हिन्दुइज्म’,
लेखक: मोनियर विलियम्स)
जब हम हिन्दू ‘सम्प्रदाय’ के बारे में विचार करते हैं तो हमें
कठिनाई का सामना करना पड़ता है । यदि यह असंभव नहीं तो कठिन अवष्य है कि हम हिन्दू
सम्प्रदाय को पारिभाषित कर पायंे। विष्व के अन्य सम्प्रदायांे की भाॅंति हिन्दू
सम्प्रदाय का कोई एक देवदूत (पैगम्बर) नहीं है, इसमें किसी एक ही देव की पूजा नहीं की जाती, इसकी कोई एक रूढि़बद्ध पहचान नहीं
है। यह किसी एक ही दार्षनिक विचार-पद्धति में विष्वास नहीं करता, यह किसी एक ही प्रकार के पांथिक अनुष्ठान का अनुयायी नहीं है;
वास्तव में इस पर किसी सम्प्रदाय या मत के पारंपरिक
संकीर्ण लक्षण पूरे उतरते नहीं दिखाई देते। इसे मुख्य रूप से एक जीवन-पद्धति ही
कहा जा सकता है, इसके अतिरिक्त कुछ और नहीं।
मोनियर विलियम्स ने लिखा है कि यह बात मस्तिष्क में स्पष्ट रूप से रखनी चाहिए कि हिन्दूवाद ब्राह्मणवाद पर आधारित किसी एक पंथ या वाद से कहीं अधिक विस्तृत और बड़ी कल्पना है। यह अनेक मत-मतान्तरों और सिद्धांतो की बेलों का जटिल जाल है, जिसके बारे में हमें अभी अनुसंधान करने की आवष्यकता है। इसकी तुलना हम गंगा नदी से कर सकते हैं, जो छोटे-छोटे स्त्रोंतो या नालों के पानी से मिलकर बड़ी नदी बन जाती है, बाद में अन्य अनेक नदियों का पानी इसमें मिल जाने से विषाल रूप ले लेती है। ... हिन्दू सम्प्रदाय हिन्दुओं के विभिन्न प्रकार के चरित्रों का प्रतिबिम्ब है जो कि एकरूप नहीं हैं बल्कि उनमें अनेक प्रकार के लोग हंै। यह विष्व भर के सभी को अपना लेने के विचार पर आधारित है। इसने सदैव परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढाला है और पिछले 3000 वर्षों में विभिन्न विचारों और पंथों को अपनाने की प्रक्रिया को चालू रखा है। इसने अपने जन्म के समय से ही सभी पंथों के विचारों में से कुछ न कुछ ग्रहण करके उसे अपने अन्दर स्थान दिया, पचाया और आत्मसात् किया है। (‘रिलीजियस थाॅट एंड लाइफ इन इंडिया’ लेखक: मोनियर विलियम्स।)
विष्व के किसी भी सम्प्रदाय या
उपासना-पंथ की पहचान के लिए जो लक्षण या मानदंड साधारणतः लागू किए जा सकते हैं वे
हिन्दू सम्प्रदाय या पंथ के निर्धारण की समस्या के लिए पर्याप्त या उपयुक्त नहीं
हैं। सामान्यतः किसी भी मान्य सम्प्रदाय या मत-पंथ की कुछ सुनिष्चित दार्षनिक
अवधारणाएं और ईष्वर-सम्बन्धी विष्वास होते हैंै। क्या यह परख हिन्दू ‘सम्प्रदाय’ पर लागू होती है?
इस प्रष्न का उत्तर देने के लिए हम मुख्यतः भारतीय दर्षन
पर डा. राधाकृष्णन की पुस्तक में इस समस्या पर प्रस्तुत विमर्ष को आधार बनाएंगें ।
(भारतीय दर्षन’, लेखक: डा. राधाकृष्णन) अन्य देषों के
विपरीत, भारत यह दावा कर सकता है कि प्राचीन भारत का
दर्षन किसी अन्य विज्ञान या कला का सहायक विषय नहीं था बल्कि यह स्वतंत्र रूप से
प्रमुख विषय रहा है। डा. राधाकृष्णन का कहना है कि ‘‘इतिहास के उतार-चढ़ावों वाली षताब्दियों के दौरान भारत अनेक परिवर्तनों से
गुजरा है लेकिन तो भी इसकी अलग पहचान सदैव बनी रही। यह कुछ मनोवैज्ञानिक विषेषताओं
को बहुत दृढ़ता से पकड़कर धारण किये रहा जो कि इसकी विषिष्ट परम्परा की पहचान थीं
और भारतीय जन के चारित्रिक लक्षण तब तक बनी रहेंगी जब तक अपने अलग अस्तित्व का
विषेषाधिकार उनके पास रहेगा। ’’
डा. राधाकृष्णन कहते हैं-‘‘यदि हम विविध प्रकार के मतों की बाहरी भिन्नता से ऊपर उठकर भारतीय विचारों की मुख्य भावना को समझने का प्रयास करें तो हमें पता चलेगा कि यह जीवन और प्रकृति की अद्वैतवादी (आत्मा और परमात्मा की एकता के) ढंग से व्याख्या करने का प्रयत्न है। यद्यपि यह प्रवृत्ति इतनी लचीली, जीवन्त और विविध पक्षों वाली है कि यह अनेक रूप ले लेती है-यहाॅ तक कि इसको परस्पर विरोधी रूपों में भी अभिव्यक्त किया जा सकता है।’’
हिन्दू धर्म ने प्रारंभ से ही यह समझ
लिया था कि सत्य के अनेक पक्ष होते हैं तथा विभिन्न विचार सत्य के भिन्न-भिन्न
पक्षों केा देखने से उपजे हैं और कोई भी विचार अकेले ही अपने आप में पूर्ण सत्य की
अभिव्यक्ति नहीं होता। यह ज्ञान स्वयं ही सहनषीलता तथा विरोधी पक्ष के विचारों को
समझने और सराह सकने की भावना को जन्म देता है। इसी कारण ‘‘भारत में उत्पन्न हुए अनेकानेक जीवन्त दार्षनिक सिद्धांतों से सम्बन्धित
विविध विचारों या दृष्टिकोणों को एक ही वट-वृक्ष की विभिन्न षाखाएं माना जाता है।
इसी कारण पगडंडियों और बन्द गलियों को भी सत्य की खोज के मुख्य मार्गों से किसी न
किसी प्रकार जोड़ दिया जाता है। ’’ जब हम हिन्दू
दार्षनिक विचारों के इस विस्तृत प्रवाह के बारे में विचार करते हैं तो हमें इस
तथ्य का अनुभव होता है कि हिन्दू दर्षन में किसी भी प्रकार के सिद्धांत या चिन्तन
को बहिष्कार्य या असत्य घोषित करने की संभावना नहीं है।
हिन्दू धर्म और दर्षन का विकास बताता
है कि समय-समय पर संत और धार्मिक सुधारक हिन्दू विचारों और व्यवहारों में पनपे
भ्रष्टाचार तथा अंधविष्वास को दूर करने का प्रयत्न करते रहे और इस कारण विभिन्न
पंथों का उदय हुआ। बुद्ध ने बौद्ध मत प्रारम्भ किया तो महावीर ने जैन पंथ चलाया।
बासव लिंगायत सम्प्रदाय के संस्थापक बने। ज्ञानेष्वर और तुकाराम ने वारकरी पंथ
प्रारंभ किया। गुरू नानक ने सिख मत की प्रेरणा दी। स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज और
चैतन्य ने भक्ति सम्प्रदाय प्रारम्भ किया। रामकृष्ण और विवेकानन्द के उपदेषों से
हिन्दू धर्म अपने सर्वाधिक आकर्षक, प्रगतिषील और
गतिमान रूप में उभरा, खिला, विकसित हुआ। यदि हम इन संतों और धार्मिक सुधारकों की षिक्षाओं का अध्ययन
करें तो हमें इनके विचारों में अंतर दिखाई देगा, किन्तु यदि इस विभिन्नता की गहराई में जाए तो हमें एक उच्च कोटि की
सूक्ष्म और अवर्णनीय एकता दिखाई देगी जो उन सबको विस्तृत और प्रगतिषील हिन्दू धर्म
की एक ही महाधारा में सहेज कर रखती है।
यह उल्लेखनीय है कि हिन्दू धर्म के
इस विराट् प्रवाह का टायनबी ने विदग्धतापूर्ण चित्रण किया है । टायनबी कहते हैं,
‘‘....जब हम सामाजिक व्यवहार के धरातल से बौद्धिक
विचार के तल पर आते हैं, तो हिन्दुत्व
सम्प्रदायों और विचारधाराओं के दक्षिण-पष्चिम एषियाई समूह की तुलना में बहुत अच्छा
उभर कर आता है। इनके विपरीत, हिन्दुत्व की
विचार-दृष्टि भी वैसी ही है जैसी ईसाई और मुस्लिम मजहब से पहले के, पुराने पष्चिमी आधे जगत् की थी। उन्हीं की भाॅति हिन्दुत्व भी
असन्दिग्ध रूप से मानता है कि सत्य तक पहुॅचने और मुक्ति प्राप्त करने के एक से
अधिक वैध मार्ग या उपाय हैं और ये उपाय न केवल एक-दूसरे से सुसंगत हैं अपितु
एक-दूसरे के पूरक भी हैं।’’ (द प्रेजेण्ट डे
एक्सपेरिमेण्ट इन वैस्टर्न सिविलाइजेषन’, लेखक-आर्नोल्ड
टायनबी ।
उच्चतम न्यायालय की संविधान-पीठ ने ‘हिन्दुइज्म’ षब्द का यह अर्थ,
जो कि सामान्यतः समझा जाता है, इस प्रकार बताया हैः
‘‘....यह बात सर्वसामान्य जानकारी में है
कि हिन्दुइज्म (हिन्दुत्व) में विभिन्न प्रकार के इतने मत, विष्वास, प्रथाएं और उपासना-पद्धतियां
सम्मिलित हैं कि ‘हिन्दुइज्म’ षब्द की ठीक-ठीक परिभाषा करना कठिन काम है।’’
वेब्स्टर के तृतीय (नये)
अन्तरराष्ट्रीय षब्दकोष में ‘हिन्दुत्व’
का अर्थ दिया है- ‘सामाजिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक विष्वासों और
व्यवहारों का एक ऐसा संपुंजन, जो अधिकांषतः
भारतीय उपमहाद्वीप में गतिषील रहा है और जाति-व्यवस्था जिसका एक लक्षण रहा है। एक
ऐसा दृष्टिकोण जो समस्त रूपों तथा सिद्धांतों को एक सनातन सत्ता तथा सनातन सत्य के
ही भिन्न-भिन्न पक्ष और भिन्न-भिन्न विभूतियां मानता है तथा जो अहिंसा, कर्म, धर्म, संसार और मोक्ष में श्रद्धा रखता है और कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग द्वारा पुनर्जन्मों के चक्र से मुक्ति
में आस्था रखता है। ’
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के 15 वें संस्करण में हिन्दुत्व का अर्थ लिखा है- ‘‘हिन्दुओं (जो मूलतः सिंधु नदी के क्षेत्र के लोगों की संज्ञा
थी) की सभ्यता, जो लगभग 2000 वर्षाें में वेदों से विकसित हुई।.... इसमें परस्पर विपरीत मत तथा तत्व
निहित हैं। यह एक विराट् अविच्छिन्न समग्र का अत्यंत जटिल संपुंजन है। हिन्दुत्व
में समस्त जीवन का समावेष होता है। इसलिए इसके धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक तथा कलात्मक पक्ष है। एक धर्ममत के रूप में हिन्दुत्व अत्यंत
वैविध्यमय दर्षन-पंथों तथा सिद्धांतों का संघटन और प्रसार है। उसके विविध
सम्प्रदाय, पंथ एवं जीवन-षैलियां है। सिद्धांततः
हिन्दुत्व समस्त विष्वासों, श्रद्धारूपों और
उपासनारूपों को समाविष्ट करता है। वह किसी की भी वर्जना या निषेध नहीं करता।
वह दिव्य सत्ता की अत्यंत वैविध्यपूर्ण अभिव्यक्तियां मानकर सबका आदर करता है और प्रत्येक अभिव्यक्ति में, प्रत्येक जीवन-रूप में दिव्यता का वास मानता-देखता है। इसीलिए सिद्धांततः वह सहिष्णु है और सबको इच्छानुसार ,स्वभावानुसार, रूचि-अनुसार कोई भी पंथ तथा साधना-रूप चुनने की पूरी अनुमति देता है और सबको इसके लिए स्वतंत्र छोड़ देता है कि वे जिस पंथ और पूजापद्धति को सर्वोत्तम मानें, उसे अपनायें। अन्य देवताओं और पूजारूपों कोे, वे उसे कितने भी अपरिचित या अनजाने लगें, हिन्दू अपर्याप्त तो मान सकता है, असत्य या आपत्तिजनक नहीं। हिन्दू मानता है कि उच्चतम दिव्य षक्तियों में और विविध देवताओं में परस्पर कोई विरोध नहीं है, बल्कि पूरकता है और सभी देवता मिलकर विष्व-कल्याण तथा मानव-कल्याण के लिए प्रस्तुत रहते है। इसलिए हिन्दुओं में धर्म का मर्म किसी देवताविषेष के ऊपर निर्भर नहीं है। देव एक ही है या अनेक हैं, यह निष्कर्ष हिन्दुत्व के अपने प्रवाह के लिए मौलिक षर्त नहीं है क्योंकि धार्मिक सत्य तो षाब्दिक निरूपणों से परे है। वह किसी भी पंथ-पदावली द्वारा पूर्णतः निरूपणीय नहीं है। वह केवल साक्षात्कार -योग्य है। इसी कारण हिन्दुत्व सभ्यता भी है और धर्म पंथों का एक विराट् संपुंजन भी। उसका कोई एक संस्थापक नहीं है, कोई एक केन्द्रीय ‘अथारिटी’ (अधिकारी-संस्था) नहीं है, विविध पंथों के बीच कोई ऊॅंच-नीच की क्रम-व्यवस्था निर्धारित नहीं है और कोई एक केन्द्र्रीय संगठन नहीं है। इसीलिए हिन्दुत्व की विषिष्ट परिभाषा का प्रत्येक प्रयास किसी न किसी रूप में अपर्याप्त सिद्ध हुआ है और होता है क्योंकि हिन्दुत्व के सर्वोत्तम भारतीय विद्वानों ने, जिनमें स्वयं सर्वाेत्तम हिन्दू विद्वान् भी है (और अन्य भी), एक ही अखंड सत्ता के विविध पक्षों की सत्ता पर सदा बल दिया है।’ लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के ‘गीता रहस्य’ में वर्णित हिन्दू धर्म का निरूपण उद्धत किया है: ‘ वेदों में श्रद्धा, मुक्ति के साधनों तथा सत्य के रूपों की विविधता में विष्वास, यह बोध कि पूज्य देवता-रूपों की संख्या विषाल है-ये हिन्दू धर्म के विषेष लक्षण हैं। ’
इस प्रकार निष्कर्ष निकलता है कि ‘हिन्दुत्व’ षब्द का कोई
संकीर्ण अर्थ समझना आवष्यक नहीं है। उसे केवल हिन्दू धार्मिक अनुष्ठानों या
रीतियों तथा व्यवहारों तक सीमित करके संस्कृति से असम्बद्ध रूप में देखना आवष्यक
नहीं है। वह तो भारतीय जन की जीवन-षैली है और संस्कृति से सम्बद्ध है। जब तक ‘हिन्दुत्व’ षब्द का किसी
भाषण में इससे विपरीत अर्थ में प्रयोग न किया गया हो, तब तक ‘हिन्दुत्व’ का प्रमुख अर्थ है- भारतीय जन (लोगों) की जीवन-षैली, न कि किसी हिन्दू पंथ के लोगों के रीति-रिवाज मात्र।
अतः ‘हिन्दुत्व’ षब्द का प्रयोग किसी अन्य मत-पंथ के
प्रति आक्रामक भाव, वैरभाव या असहिष्णुता का सूचक नहीं
है। इसका ऐसा आषय ग्रहण करना इस षब्द के सच्चे अर्थ और सही व्यंजनाओं को ठीक से न
ग्रहण करने का परिणाम है।
अंगे्रजियत का दुष्प्रभाव
भारत में अंग्रेजियत का दुष्प्रभाव निरंतर इसीलिए बढ़ता चला जा रहा है कि ईसाई मिषनरियों से साॅठगाॅठ करके हिन्दुत्व की सर्वव्यापक और सर्वकल्याणकारी राष्ट्रीय अवधारणा को कुचलने के लिए जिस षड्यंत्र की आधारषिला लार्ड मैकाले ने 1830 में रखी थी उस नीति पर हमारा देष आज भी चल रहा है। यदि भारत के राजनीतिज्ञों के पास श्रेष्ठ कोटि की राजनीतिक बुद्धि होती तो वे अपने देष का नाम ‘इंडिया’ न रखते। संविधान में भारत को ‘‘इंडिया दैट इज भारत’’ सम्बोधित किया गया है, उसकी कहीं कोई आवष्यकता नहीं थी। पाकिस्तान ने जब अपना संविधान बनाया तो अपने राष्ट्र का नाम पाकिस्तान रखा। इसी प्रकार सीलोन ने जब अपना संविधान बनाया तो अपने देष का नाम सीलोन नहीं, बल्कि श्रीलंका रखा; पर हम भारतीयों ने जब अपना संविधान बनाया तब भारत का नाम ‘इंडिया’ रखा, क्योंकि अंग्रेजों की गुलामी करते-करते हम अंग्रेजियत से इतना सम्मोहित हो गये कि अपना कर्तव्य, अपना धर्म ही भूल गये; हम अपने राष्ट्र की अस्मिता को भी भूल गये और पष्चिम से जो सांस्कृतिक आक्रमण हुआ उसके समक्ष नतमस्तक हो गये।
प्रतिरोध के होते हुए भी
पष्चिम से भारतीयता-विरोधी अंग्रेजियत-प्रधान
संस्कृति का जो आक्रमण 1830 में प्रारंभ हो
गया था, उसका जैसा प्रबल प्रतिरोध होना चाहिए था
वैसा प्रबल प्रतिरोध नहीं किया गया। ऐसा नहीं है कि प्रतिरोध बिल्कुल भी नहीं किया
गया। प्रतिरोध तो किया गया-स्वामी दयानन्द ने किया, ईष्वर चन्द्र विद्यासागर ने किया, बंकिम
चन्द्र चटर्जी ने किया, योगी अरविन्द ने किया, स्वामी विवेकानन्द ने किया, लोकमान्य तिलक और महामना मालवीय ने किया तथा महात्मा गांधी ने भी किया-पर
जब संविधान बन रहा था तो न जाने किस दबाव में आकर भारतीय नीति-नियंता पष्चिम से
होने वाले सांस्कृतिक आक्रमण के समक्ष नतमस्तक हो गये। सान्त्वना यह रही कि
संविधान-निर्माता पूर्णतः नतमस्तक नहीं हुए, आंषिक रूप से ही नतमस्तक हुए। फिर भी, जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे
पष्चिमी चिंतन और पष्चिम की संस्कृति को भारत में अधिकाधिक मान्यता मिलती गयी और
उसी के साथ बढ़ती चली गयी अंग्रेजियत की षक्ति, उसका प्रचलन तथा उसका आतंक।
स्वाधीनता के बाद अंग्रेजियत के इस आतंक के विरूद्ध खड़े होने का साहस सबसे पहले डा. राम मनोहर लोहिया ने दिखाया था। डा. राम मनोहर लोहिया ने अंग्रेजियत-प्रधान चेतना पर जैसा करारा प्रहार किया, वैसा करारा प्रहार स्वतंत्र भारत में इसके पहले कभी नहीं किया गया। पर डा. लोहिया के आसमयिक निधन ने भारतीयता के इस प्रबल समर्थक को छीन लिया और इसी के साथ जो अंग्रेजियत परास्त होती दिख रही थी वह पुनः फलने-फूलने लगी। दुःख की बात यह रही कि लोहिया के षिष्यों ने उनके सिद्धांतों पर चलने के बजाय लोहिया को बेचना प्रारंभ कर दिया।
स्वाधीनता के बाद अंग्रेजियत के इस आतंक के विरूद्ध खड़े होने का साहस सबसे पहले डा. राम मनोहर लोहिया ने दिखाया था। डा. राम मनोहर लोहिया ने अंग्रेजियत-प्रधान चेतना पर जैसा करारा प्रहार किया, वैसा करारा प्रहार स्वतंत्र भारत में इसके पहले कभी नहीं किया गया। पर डा. लोहिया के आसमयिक निधन ने भारतीयता के इस प्रबल समर्थक को छीन लिया और इसी के साथ जो अंग्रेजियत परास्त होती दिख रही थी वह पुनः फलने-फूलने लगी। दुःख की बात यह रही कि लोहिया के षिष्यों ने उनके सिद्धांतों पर चलने के बजाय लोहिया को बेचना प्रारंभ कर दिया।
धर्म और न्याय
समानार्थी षब्द नहीं होते तो भारतीय संविधान-निर्माता क्यों सर्वोच्च न्यायालय के लिए महावाक्य के रूप में ‘‘धर्मो रक्षति रक्षितः’’ को स्वर्णाक्षरों में अंकित करवाते? अब क्या रामो-वामो सर्वोच्च न्यायालय के न्याय-पीठ पर स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ ‘‘धर्मो रक्षति रक्षितः’’ महावाक्य मिटा देना चाहते हैं? क्या वे ‘‘सत्यमेव जयते’’ के उद्घोष को मान्यता देने से इंकार कर देंगे? क्या ‘‘धर्मचक्र प्रवर्तनाय’’ को जो मान्यता मिली है वह वाम मोर्चे से मिली है? निःसन्देह रामो-वामो को अंततः अपने ंिचंतन में परिवर्तन करना ही होगा। अब जब सर्वाेच्च न्यायालय का निर्णय आ चुका है तो हिन्दुत्व अथवा भारतीयता के साथ किये जाने वाले अन्याय को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। यही न्याय है और यही धर्म है।
हिन्दुत्व की आत्मा
आज से नहीं, हजारों वर्षों से हिन्दुत्व एक जीवन-षैली है और भारतीयता की जो जीवनषैली
है, वही हिन्दुत्व है। भारतीयता की जीवन-षैली को
‘हिन्दू’ नाम देने का श्रेय यूनानियों और अरबों को जाता है। यूनानियों तथा अरबों ने
भारतवर्ष में आकर यहां की संस्कृति, सभ्यता, आचार-विचार को जो नाम दिया, वह नाम था-हिन्दू। उन्होंने यहां के नागरिकों को जिस नाम से संबोधित किया,
वह नाम भी था-हिन्दू। ‘हिन्दुत्व’ की उत्पत्ति यहीं से हुई । यह
बिल्कुल सही चिंतन है कि हिन्दू संस्कृति राष्ट्रवादका प्रतीक है। हिन्दुत्व भारत
की अस्मिता का प्रतीक ह। इसमें समस्त राष्ट्रवाद निहित है। इस ष्षब्द के अभाव में
भारतीयता की रक्षा नहीं की जा सकती। हिन्दुत्व उस संस्कृति का नाम है जिसका लक्ष्य
है-‘‘सर्वभूत हितेरतः।’’ जहाॅ सर्वकल्याण और सब के उत्कर्ष का भाव गूॅजता हो, वहीं है भारतीय संस्कृति अर्थात् हिन्दुत्व के आत्मा का वास।
प्राणिमात्र के प्रति सद्भावना और समस्त वैविध्य के प्रति सहिष्णुता तथा उसका
सम्मान हिन्दुत्व की चेतना का जागतिक लक्ष्य है। यही है उसका मूल मंत्र। जहां
स्वार्थ व संकीर्णता है, जहां असहिष्णुता,
हिंसा व अराजकता है, वहां हिन्दुत्व हो ही नहीं सकता। यह ठीक है कि हिन्दुत्व के नाम पर भी
हिंसा व अराजकता हुई है तथा हिन्दुत्व की आड़ में संकीर्णता व भेदभाव का प्रदर्षन
किया गया है, पर इस सब के लिए हिन्दुत्व को तोे
दोषी नहीं ठहराया जा सकता। सत्य व धर्म की षपथ लेने के उपरांत भी न्यायाधीष के
समक्ष असत्य बोलने में सत्य का कोई दोष नहीं होता। सत्य की आड़ लेकर असत्य का
समर्थन कर देने से सत्य को अपराधी या कलंकित नहीं माना जा सकता।
भारतीयता का प्राणतत्व: हिन्दुत्व
गत 11 दिसंबर, 1995 को देष मे आहत राष्ट्रीय मन को उस
समय कुछ सान्त्वना अवष्य मिली जब भारत के सर्वाेच्च न्यायालय के 3 माननीय न्यायाधीषों ने यह सर्वसम्मत निर्णय दिया कि चुनावांे
में ‘हिन्दुत्व’ षब्द का प्रयोग भ्रष्टाचार नहीं है। देष को स्वातंत्रय मिलने के पूर्व से
ही ‘हिन्दू’ और ‘हिन्दुत्व’ षब्द गाली और अपराध की श्रेणी में डाल दिये गये थे। अपनी ‘सेकुलरिटी’ सिद्ध करने के
लिए हिन्दुओं का विरोध और अल्पसंख्यकों की आवभगत करने को अपरिहार्य बना दिया गया।
पष्चिम द्वारा सृजित ‘नवजात’ राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के
भँवरजाल में भारत को ऐसा फँसाया गया और उसके आधुनिकतावादी नेतागण उसमें फँसे भी
ऐसे कि उन्हें अपना पराया और पराया अपना लगने लगा। हमारे देष के बुद्धिजीवी और
पत्रकार अपने प्रति हीन भावना और अपराध-बोध से इतने अधिक चिन्तित थे कि उन्होंने
विदेषी मुहावरें खोज-खोजकर हमारे ऊपर थोपे और भारत की धरती पर जन्मे लोकजीवन के
मुहावरों और लोकसंस्कृति को अंधयुग का उत्पाद कहकर दुत्कारा। हम जिस भारत के वासी
हैं, जिस भारत की परम्परा के हम उत्तराधिकारी हैं,
जिसकी संस्कृति, जिसके
षास्त्र और संत, जिसके तवस्वियों का तप, चिन्तकों का चिन्तन और ऋषियों की भविष्यदृष्टि सृष्टि के
सनातन सत्य के प्रतिनिधि और प्रतिपादक थे, उसे अतीत
मानकर वर्तमान में उसके रूप और स्वरूप को इतना अधिक घृणास्पद और प्रतिगामी बताया-
दिखाया गया कि उसके कारण हमारा वर्तमान तो बिगड़ा ही, हमारा भविष्य भी वर्तमान बनने से पहले ही भ्रष्ट हो गया। भारत के साथ
अंग्र्रेजों ने केवल आर्थिक और राजनीतिक ही नहीं, जो सामाजिक, मजहबी और सांस्कृतिक कुटिलताएं भी की
थीं, उन्हीं का परिणाम है कि स्वाधीन होने के बाद
भी हम मानसिक रूप से गुलाम हैं और पष्चिमी कचरे को आधुनिकतम मानकर आत्मनाष करने पर
उतारू हैं। कैसे लोग हैं वे और कैसे लोग हैं हम कि उनका मजहब, उनका चर्च, उनकी बाइबिल,
उनके पैगम्बर, उनकी मस्जिद,
उनकी कुरान, उसके
प्रति उसे मानने वालों की एकान्तिक निष्ठा और न मानने वालों के जीने के अधिकार पर
प्रष्न-चिह्न लगाने वालों की कट्टरवादिता और साम्प्रदायिक षत्रुता को ‘सेकुलरिटी’ की चादर से
ढं़कते हैं और सभी पंथों के प्रति आदरभाव रखने वाले हिन्दू समाज को साम्प्रदायिक
कहते हैं ! ईसाई और इस्लामी फिरकापरस्त लोग स्वयं को तो षांतिदूत कहते हैं और धर्म
की सनातन सत्ता के सपूत हिन्दुओं को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं।
हिन्दू और हिन्दुत्व
क्या है हिन्दू? क्या होता है हिन्दू होना? किसे कहते हैं हिन्दुत्व? हिन्दू और
हिन्दुत्व आकार नहीं, अवधारणा है। यह जीवन का स्पन्दन हैं,
स्वर है, जीवन-दर्षन और
जीवन-दृष्टि है। यह भारतभूमि की सुगंध है, देषभूमि
का राष्ट्रधर्म है, सृष्टि का सर्जक तत्त्व है। अथर्ववेद
द्वारा की गयी ‘ भूमि का पुत्र’ होने की घोषणा है हिन्दुत्व और वह पुत्र है हिन्दू। भारत की
पहचान, उसका व्याप और प्राणतत्त्व है हिन्दुत्व। इस
देष की सीमाएं हिन्दुओं के संकुचन और विस्तार के साथ-साथ सिकुड़ती और विस्तृत होती
आयी हैं, हो गयी हैं। हिन्दू जीवन और चिन्तनधारा में
वे सभी स्वाभाविक और समान रूप से सम्मिलित हैं जो जीव को षिव और नर को नारायण
बनाने की साधना-प्रक्रियाओं की भिन्नता के होते हुए भी सभी का आदर करते है। भारतीय
और हिन्दू चिन्तनधारा में कोई अंतर नहीं है। हिन्दू और हिन्दूत्व अतिप्राचीन
भारतीय चिन्तनधारा का आधुनिक संस्करण हैं। हिन्दुत्व भारतीय भूगोल पर जन्मी,
पली-बढ़ी जीवन-षैली की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और भाववाचक
संज्ञा है। भारत की वैदिक चेतना का यथार्थ और भारतीयपन की पहचान है हिन्दुत्व।
क्या हिन्दू चिन्तनधारा भारतीय चिन्तनधारा का मुख्य उपादान नहीं है? क्या विभिन्न विचारधाराओं से कुछ टकराव, कुछ विनिमय, कुछ अनुकूलन आदि
प्रतिक्रियाओं से हिन्दू चिन्तनधारा धीरे-धीरे भारतीय चिन्तनधारा नहीं बन गयी?
प्राचीन काल में हमने तो अपने धर्मषास्त्र का नाम भारतीय
भी नहीं रखा, केवल मानव धर्मषास्त्र रखा। हमारे
आदिकवि ने संस्कृतभाषी के लिए ही नहीं, भारतीय के
लिए ही नहीं, अयोध्यावासी के लिए ही नहीं, समस्त लोक के लिए श्रीराम का सम्पूर्ण चरित्र चित्रित किया ।
हमारी प्राचीन ज्ञान-राषि वेद में कहीं भी, किसी नस्ल के देवकृपाधिकारी को मानने की बात नहीं आयी। हमारी बात तो
सर्वदा यही रही कि
सर्वमिदं विभाति। तमेव भान्तमनुभाति
सर्वं, तस्य भासा
अर्थात् उन्हीं के प्रकाषित होने पर
सब उनके प्रकाष से प्रकाषित होते हैं। उन्हीं के प्रकाष से सब प्रकाषित हैं।’
हिन्दू धर्म
हिन्दू धर्म भी धर्म के पहले नहीं
जुड़ा। जातियों, कबीलों की चर्चा भी आयी तो इस रूप
में कि ‘हे पृथ्वीमाता! तुम्हारी गोद में नाना
प्रकार के आचार-विचार वाले, नाना प्रकार की
भाषा बोलने वाले पलते हैं, आपस में खेलते
हैं, लड़ते हैं, फिर मिलते हैं, क्योंकि मिलाने वाली तो तुम्हीं एक
हो न। ऐसी दषा में भारत नामक वैचारिक भूगोल में चिन्तनधारा का विस्तार हुआ। इसके
साझीदार दूर-दूर तक के लोग प्राचीन काल में तो हुए ही, आज भी हो रहे हैं। अपने को हिन्दू कहने में मुझे गर्व है कि हिन्दू होने
के कारण दूसरों के विचारों को समझने की
मुझे तितिक्षा है, मुझमें एक सहज स्वीकारी भाव है,
जो किसी को भी पराया नहीं समझता; परन्तु इसका यह अर्थ कैसे होगा कि हिन्दू कहलाने वाला व्यक्ति भारतीय की
बात करने का, समावेषक भारतीय अवधारणा की बात करने
का अधिकारी नहीं?’ स्वर्गीय डाक्टर सम्पूर्णानन्द कहा
करते थे कि ‘विज्ञान के नाम पर अपनी ज्ञान-धरोहर
को एकदम खारिज तो परीक्षण के अनन्तर ही निष्कर्ष
निकालता है। अपनी परम्परा जाँच की परम्परा रही है; उसे जाँचे और उस जाँच में कुछ त्याज्य पाये ंतो उसे छोड़ दें, यह तो समझ में आता है, पर यह कहाँ की बुद्धिमानी है कि पूरी की पूरी परम्परा को बेकार घोषित कर
दें, नये विचारों ,नयी विकास-पद्धतियों के नाम पर!’
भारत की सामूहिक साधना, आराधना और जीवन रचना का नाम है हिन्दू धर्म। जो यह जानता है कि अभी भी
जानने योग्य, साधने योग्य, सोचने और विचारने योग्य बहुत कुछ बाकी है और जो अब तक जाना गया है वह
श्रद्धा के योग्य है, वही हिन्दू है। सोच विचार और अनुभूति
की प्यास चूंकि सनातन है इसलिए यही परम्परा सनातन धर्म है। बुद्ध ने इसे ‘सनातन धम्म’ कहा।
हिन्दुत्व राष्ट्र-धर्म है
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने किसी
नये सत्य या तथ्य का उद्घाटन नहीं किया। सहस्त्राब्दियों से चले आ रहे जीवन-दर्षन
और जीवन-पद्धति की मान्यता को केवल वैधता प्रदान की। किसी देष की राष्ट्रीयता विधि,
वैधता या वैधानिकता की मोहताज नहीं होती। लोकमान्यता,
लौकिक संवेदनाएं, उसके साथ जुड़े सुख-दुख, जय-पराजय,
सम्मान-अपमान के प्रसंग, पूर्वजों-परम्पराओं के प्रति लगाव और भविष्य के प्रति समान अकांक्षाएं उसे
राष्ट्र होने का गौरव प्रदान करती हैं। कोई न्यायालय न किसी राष्ट्र को निरस्त कर
सकता है और न कोई कानून राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। भारत में जिस जन के मन में
सर्वप्रथम सहजात-सहोदर भाव जगा और जो आज भी उसके प्रति समर्पित है, वही भारतभूमि के ‘जन’
हैं। वही भारतीय की भारतीयता या हिन्दू का हिन्दुत्व है,
वही भारत के राष्ट्र जन के रक्त का रंग है। यदि कोई रंग
को अलग कर सकता हो तो भारतीय और हिन्दू को, भारतीयता और हिन्दुत्व को भी अलग किया जा सकता होगा। इन्हें अलग-अलग मानने
और एक दूसरे से अलग करने के प्रयत्नों का परिणाम है भारत का सराय बन जाना, उसकी दरिद्रता और परजीविता। यही कारण है कि अतिप्राचीन
राष्ट्र होकर भी हम आज राष्ट्र नहीं कहला पा रहे हैं। यही कारण है कि भारत की यह
हमारी स्वर्णभूमि आज कष्टों से घिरी है और अतुल अगाध सम्पदा के उत्तराधिकारी होकर
भी हम भूखे, भिखारी और दरिद्र हैं। धर्ममंच से
लेकर राजनीतिक मंच तक हम अपनी स्पष्ट पहचान परिभाषित कर और बता सकते हैं कि हम
अमुक-अमुक परम्परा, अमुक-अमुक पूर्वजों और अमुक
जीवनदर्षन के प्रतिनिधि हैं, हमारा सामूहिक
नाम हिन्दू है, हिन्दूत्व हमारा राष्ट्र धर्म है और
सर्वपंथ-समादर हमारा स्वभाव है।
इतिहास साक्षी है
इतिहास और अनुभव साक्षी है कि हिन्दू
केवल सहनषील ही नहीं , सहजीवी भी है । षास्त्रार्थ और संवाद
के सभी मार्ग बंद हो जाते हैं तो ही वह षस्त्र और षक्ति की भाषा में बोलता एवं
उत्तर देता है। जब कभी उसने षस्त्र उठाया है, इसी परिस्थति में उठाया है । कल के अतीत से लेकर आज तक की उसकी यही
परम्परा है। दया और करूणा का धनी होने का अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि उसे
दीन या दैन्ययुक्त भी होना चाहिए। हिन्दू जब-जब दीन, दैन्ययुक्त हुआ है, भारत का पतन होने
के साथ-साथ उसकी पराजय भी हुई है ।
हिन्दुत्व का विष्वास
हिन्दुत्व का विष्वास सदैव से श्रेय
और प्रेय के संतुलन पर रहा है और उसमें भी श्रेय को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया गया
है। श्रेय पर किया जाने वाला यह विष्वास भी हिन्दुत्व के सृजनात्मक पक्ष को उजागर
कर सका है। सृजन के प्रति हिन्दुत्व की प्रतिबद्धता इतनी अधिक है कि वह सर्वहित के
निमित्त हलाहल भी पी लेगा। हिन्दुत्व का धर्म अपने संबंध कर्मकाण्ड से नहीं जोड़ता,
उसकी तो सर्वाधिक आस्था कर्तव्य कर्म के प्रति है।
अनासक्त भाव से कर्तव्य कर्म के प्रति सम्पूर्ण समर्पण ही नहीं, वरन् अपने प्राणों का बलिदान भी हिन्दुत्वनिष्ठ को प्रिय है।
सत्य के प्रति जैसी प्रबल आस्था हिन्दुत्व में है , वह स्थिति अन्य जीवन-पद्धतियांे में देखने को नहीं मिलती।
हिन्दुत्व की आधारषिला
हिन्दुत्व में सभी उपासना-पद्धतियों
को स्वतंत्रता देने का ही भाव नहीं है बल्कि उनके सम्मान का भी भाव है। आध्यात्मिक
चिंतन तथा स्वयं के ऊध्र्वारोहण हेतु हर व्यक्ति इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वह
मनचाहे मार्ग का वरण करे, पर उसका यह वरण
सर्वोत्कर्ष में, सर्वहित में, सर्वकल्याण में और सर्वसम्मान में तनिक भी बाधक नहीं बनना चाहिए। मंदिर,
मस्जिद, चैत्य, गुरूद्वारे, गिरजाघर और अन्य
सभी उपासना-स्थल हिन्दुत्व के लिए पवित्र हैं, पर तभी तक जब तक वे सर्वकल्याण , सब के
उत्कर्ष, सर्वहित तथा सर्वसम्मान के भाव से ओतप्रोत
हों। जहां कहीं भी घृणा, अराजकता, हिंसा, द्वेष, अनुदारता तथा राष्ट्रीय अपमान और संस्कृतिक असम्मान है,
उसे हिन्दुत्व से समर्थन नहीं मिल सकता; उसे तो हिन्दुत्व के विरोध का ही सामना करना होगा, क्योंकि यही धर्म है, यही
कर्तव्य कर्म है और यही न्याय भी है। किन्तु हमारे देष में एक वर्ग ऐसा भी है जो
अपनी राजनीतिक स्वार्थपरता अथवा अंगे्रजियत से दुष्प्रभावित होने के कारण
हिन्दुत्व को संकीर्ण दृष्टि से देख रहा है। वह यह स्वीकार करने के लिए तैयार ही
नहीं है। समस्त भारतीय जीवन-षैली हिन्दुत्व में ही समाहित है। इसमें दोनों पक्षों
के लोग है। इसमें वे भी षामिल है। जो अल्पसंख्यकवाद अथवा अल्पसंख्यकों के
तुष्टिकरण की राजनीति चला रहे हैं और वे भी षामिल हैं जो हिन्दुत्व षब्द का
दुरूपयोग करते हैं और जिनकी यह अवधारणा है कि हिन्दुत्व उपासना-पद्धति-विषेष के
लिए है, जबकि सच यह है कि हिन्दुत्व सभी पन्थ या
मजहब वालों के लिए है। सर्वधर्म समभाव और सर्वधर्म सहअस्तित्व का भाव हिन्दुत्व की
आधारषिला है। हिन्दुत्व में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उपासना-पद्धति चुनने का
पूरा-पूरा अधिकार है। विष्व में इस अधिकार
को केवल हिन्दुत्व ही मान्यता प्रदान करता है। विष्व में ऐसा कोई भी पंथ
अथवा मजहब नहीं है जो इस प्रकार की उदारता और सहिष्णुता रखता हो। आखिर सर्व
उपासना-पद्धतियों को सम्मान देने की जो प्रतिबद्धता है उसे संकीर्ण कैसे कहा जा
सकता है? किन्तु यह बात बहुत से राजनीतिज्ञों तथा
अंगे्रजियतपरस्त लोगों की समझ में नहीं आ रही है। इन आलोचकों को मुॅंहतोड़ उत्तर
देने का सामथ्र्य सच्चे राष्ट्रवादियों के पास होना ही चाहिए। अब समय आ गया है कि
हम अंग्रेजियत-प्रधान राष्ट्रवाद को स्वीकार करने के लिए अभियान चलायें ।
संविधान की आत्मा
हमारे संविधान में विद्यमान प्रत्येक
संस्था, संविधानिक
विन्यास का प्रत्येक भाग ऐसा है उसकी एक काया या देह है और एक मर्मभाग या
आत्मा है । यदि परिवेष अनुकूल नहीं रहे तो देह का ढाॅंचा बना रहता है किन्तु उसमें
प्राण नहीं बच पाते। ठठरी पड़ी रहती है, आत्मा
प्रस्थान कर जाती है।
प्रेरणा की प्राणवायु से रहित
निर्वात स्थान में जब हम एक बनावटी प्रयत्न में जुट जाते हैं कि ‘सीजर’ का सीजर को दो और
‘ईष्वर’ (गाॅड) का ईष्वर को दो (एक प्रसिद्ध ईसाई सूक्ति) तो हम ‘सीजर और ‘गाॅड’ दोनों को विकृत अर्थ दे रहे होते हैं। तब अपनी व्याधियों को
ठीक करने के लिए हम चिकित्सक के पास न जाकर, मानो कसाई के पास जा पहुंचते हैं।
आध्यात्मिक सहारे के अभाव में,
देष के संविधानिक लक्ष्य साकार नहीं हो पा रहे और
संस्थाएं लड़खड़ा रही हैं। देष ऋण की देनदारी में गले तक फॅंसा है। विदेषी
साहूकारों का ही 99 अरब डालर का कर्ज है। राजनीति
भ्रष्ट लोगों और अपराधियों के द्वारा अधिकाधिक प्रभावित होती जा रही है। भारतीय
बुद्धि में लगातार बिखराव आ रहा है। भारतीय भावनांए आकाष से सम्प्रेषित तरंगों
द्वारा नित्य ही विकृत तथा अधोगामी बनायी जा रही है। नये साम्राज्यवाद के नये ‘एजेण्ट’ भारत को लूटे ले
रहे हैं। टी.एस. इलियट के ष्षब्दों में कहे कि तो देष को लगातार ‘ईष्वर से अधिकाधिक दूर और गर्द-गुबार के अधिक-से-अधिक निकट’
ले जाया हा रहा है। देष को लगातार संकीर्ण और विकृत
बनाकर ‘बहरों का राज्य’ रचा गया है, जहां सामान्य जन चीखता-पुकारता रहता
हैः ‘सत्य कहाॅ है? न्याय कहाॅ है? जिस महान् देष के निर्माण के वचन
प्रत्येक नेता ने स्वातन्त्र्य के आरम्भ में दिया था, वह महान् देष कहाॅ है?’
आधुनिक भारत के महानतम् ऋषियों में
से एक, श्री अरविन्द, निरंतर कहते रहे हैं कि ‘भारत का महान्
भविष्य अतीत की अध्यात्मिक महान्ता के आधार पर ही रचा जा सकता है।’ स्वामी विवेकानन्द ने तो स्पष्टतर षब्दों में कहा था- ‘प्रत्येक व्यक्ति की ही भाॅंति, प्रत्येक राष्ट्र की भी एक केन्द्रीय मनीषा होती है, एक मूल जीवन-लय होती है। यदि कोई राष्ट्र अपनी राष्ट्रीय
प्राणषक्ति को ही दूर कर देने को तत्पर हो उठे तो वह राष्ट्र मर जाता है। भारत के
राष्ट्रीय जीवन का केन्द्रीय भाग है-धर्ममय जीवन।’
वह जो खो गया है
इतिहास के विस्तृत फलक पर हिन्दुत्व
पर प्रहार होते रहे हैं और क्षत-विक्षत होता रहा है। हिन्दुत्व का पुनर्पाेषण ,
उसको पुनः बलषाली बनाना आवष्यक है। हिन्दुत्व तो मानता
ही है कि परिवर्तन और गतिमयता तथा प्राणवत्ता जीवन और सृष्टि के अंग है। सृष्टि
सतत परिवर्तनषील है। उसकी अपनी सृजनात्मक प्रक्रिया है। अपना निरन्तर नवजीवन करते
रहने वाला प्रवाह है।
सर मोनियर विलियम्स का यह कथन
द्रष्टव्य है कि ‘‘स्पिनोजा (विख्यात पाष्चात्य
दार्षनिक) के अस्तित्व से भी 2000 वर्ष पूर्व
स्पिनोजा का (सर्वेष्वरवादी) दर्षन हिन्दुओं के पास विद्यमान था, डार्विन से षताब्दियों पूर्व वे डार्विन के सिद्धांतों को
अन्वेषित कर चुके थे और हमारे समय के वैज्ञानिकों द्वारा विकासवाद की स्वीकृति से
पूर्व ही वे विकासवादी थे। ’’
हिन्दुत्व के इसी भूले-बिसरे गतिमय
संतुलन या कि सन्तुलित गतिमान चरित्र को पुनर्जागरित कर सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन
की एक नयी षैली, राजनीति और प्रषासन के एक नये स्वरूप
का निर्माण करने का समय आ गया है। हिन्दुत्व को एक ऐसी रचनात्मक और सृजनात्मक ऊर्जा
से सम्पन्न करना आवष्यक है जिससे एक नये, सदाचारी,
सदय, करूणा-सम्पन्न,
मननषील, षुद्ध
अंतष्चेतना-सम्पन्न हिन्दू का उदय हो सके-ऐसा हिन्दू जो हमारी संस्कृति के त्याग,
तपस्या और सत्यम् षिवम् सुन्दरम् जैसे सकारात्मक
जीवन-मूल्यों का पोषण करता है और सत्य के उत्तरोत्तर उच्चतर सोपानों पर बढ़ते चले
जाने की हिन्दू विचार-परम्परा का अनुगमन करते हुए उन्हें नयी दृष्टि और नये ज्ञान
से संयोजित करने के लिए सदा तैयार रहता है।
हठधर्मियों के कुतर्क
राजनीतिज्ञों का एक वर्ग हिन्दुत्व
की सर्वकल्याणकारी वास्तविकता को स्वीकार नहीं कर पा रहा और हो सकता है कि वह यह
भी चेष्टा करे कि सर्वोच्च न्यायालय अपना निर्णय बदल दे। पर यदि ऐसा हुआ तो यह
राष्ट्र का दुर्भाग्य ही होगा। जिसको दिखाई न देता हो अर्थात् जो अंधा हो, उसे तो वस्तुस्थिति बताने और समझाने की चेष्टा की जा सकती है,
किन्तु जो अंधा होने का ढोंग करे अथवा नेत्र और दृष्टि
होने के उपरांत भी वस्तुस्थिति को देखने, जानने और
समझने से इनकार कर दे, ऐसे हठधर्मियों को कौन वष में कर
सकता है! कुतर्क, अतितर्क और हठधर्मिता का निदान तो
ब्रह्मा के पास भी नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के उपरान्त भी हिन्दुत्व
के संदर्भ में जैसे कुतर्क नेताओं द्वारा प्रस्तुत किये गये वे आष्चर्यजनक है। भले
ही वह यह न समझ पा रहे हों कि बिना सम्प्रदायपरक भावनाओं को उभारे हिन्दुत्व का
प्रयोग कैसे किया जा सकता है, तो भी वे इस बात
से कैसे इनकार कर सकते हैं कि हिन्दुत्व की चेतना उन व्यक्तियों को भी अपने में
समेट लेती है और सम्मान प्रदान करती है जिनकी न ईष्वर में आस्था है न धर्म में!
यदि ‘ हिन्दुत्व ’ षब्द का विभ्रमवष या जानबूझकर सार्वजनिक जीवन में गलत प्रयोग होता रहा है
तो इसका अर्थ यह नहीं हो जाता कि गलत प्रयोग को मान्यता दे दी जाये-और तो और,
सच्चाई जान लेने के बाद भी हिन्दुत्व षब्द का गलत प्रयोग
किया जाये। किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह हिन्दुत्व का दुरूपयोग करे और इस
राष्ट्रवाचक षब्द को संकीर्णता का प्रतीक तथा पंथनिरपेक्षता का विरोधी बताये।
ष्मषान-वैराग्य
24 जनवरी, 1948 के दिन विभाजन की विभीषिका की छाया में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने
जब पाकिस्तान -आंदोलन के ध्वजवाहक अलीगढ़ मुस्लिम विष्वविद्यालय में खड़े होकर
घोषणा की कि ‘तुम मुसलमान हो और मैं हिन्दू हूँ’
और यह प्रष्न उठाया कि भारत की जिस महान् और उदार सभ्यता
पर मुझे गर्व है, उस पर तुम्हें भी गर्व है या नहीं ?
तुम स्वयं को इस विरासत के समृद्ध खजाने का मेरे समान ही उत्तराधिकारी समझते हो या नहीं? तब लगा था किष्षायद विभाजन के आघात ने पष्चिमी ढाँचे में ढले हिन्दू मस्तिष्क को आत्मालोचन और आत्मबोध के लिए विवष कर दिया है। किन्तु वह मात्र ष्मषान-वैराग्य सिद्ध हुआ, क्योंकि षीघ्र ही भारतीय नेतृत्व संविधान द्वारा अंगीकृत ‘वोट’ और दल की राजनीतिक प्रणाली का बन्दी बन गया। वोट-राजनीति के अन्तर्गत राष्ट्रीयता और पंथनिरपेक्षता की विकृत अवधारणाओं में उसका निहित स्वार्थ उत्पन्न हो गया। इस सत्य केा उसने तुरंत ही भुला दिया कि भारतीय राष्ट्रीयता की जड़ें राज्य और राजनीति में न होकर संस्कृति में हैं। भारत में राष्ट्रीयता के विकास की प्रक्रिया का वाहक राजसत्ता नहीं, सांस्कृतिक प्रवाह रहा है।
तुम स्वयं को इस विरासत के समृद्ध खजाने का मेरे समान ही उत्तराधिकारी समझते हो या नहीं? तब लगा था किष्षायद विभाजन के आघात ने पष्चिमी ढाँचे में ढले हिन्दू मस्तिष्क को आत्मालोचन और आत्मबोध के लिए विवष कर दिया है। किन्तु वह मात्र ष्मषान-वैराग्य सिद्ध हुआ, क्योंकि षीघ्र ही भारतीय नेतृत्व संविधान द्वारा अंगीकृत ‘वोट’ और दल की राजनीतिक प्रणाली का बन्दी बन गया। वोट-राजनीति के अन्तर्गत राष्ट्रीयता और पंथनिरपेक्षता की विकृत अवधारणाओं में उसका निहित स्वार्थ उत्पन्न हो गया। इस सत्य केा उसने तुरंत ही भुला दिया कि भारतीय राष्ट्रीयता की जड़ें राज्य और राजनीति में न होकर संस्कृति में हैं। भारत में राष्ट्रीयता के विकास की प्रक्रिया का वाहक राजसत्ता नहीं, सांस्कृतिक प्रवाह रहा है।
पूर्वाग्रह
पंथनिरपेक्षता और राष्ट्रीयता के स्वरूप
के बारे में इस नेतृत्व ने जो भ्रमजाल खड़ा किया है उससे न्यायपालिका भी पूर्णतः
अप्रभावित नहीं रह सकी है। समय-समय पर कुछ उच्च न्यायालयों, यहां तक कि सर्वाेच्च न्यायालय में भी कुछ न्यायाधीषों के वैचारिक
पूर्वाग्रह उनके निर्णयों में प्रतिबिम्बित हुए हैं। महाराष्ट्र के उच्च न्यायालय
ने पिछले कुछ वर्षों में चुनाव -भाषणों में ‘हिन्दू’ या ‘हिन्दू’ षब्दों के उल्लेखमात्र को राजनीति
में धर्म का दुरूपयोग बताकर जिस प्रकार थोक भाव में भाजपा और षिवसेना के निर्वाचित
प्रतिनिधियों के चुनाव निरस्त किये, उसे देखकर यह मानने
को विवष होना पड़ता है कि उन निर्णयों को देते समय कुछ न्यायाधीष निष्चित ही
पूर्वाग्रहों के वषीभूत थे।
इसी प्रकार 6 दिसम्बर, 1992 को अयोध्या की घटना को आधार बनाकर
केन्द्र की कांग्रेसी सरकार ने राजनीतिक द्वेष से अन्धे होकर तीन राज्यों की
निर्वाचित भाजपा सरकारों को रातोंरात बर्खास्त कर दिया, उस आदेष पर सर्वोच्च न्यायालय की एक खण्डपीठ ने लम्बे समय बाद जो निर्णय
दिया उसमें पंथनिरपेक्षता की विकृत व्याख्या के समर्थन में लम्बे-लम्बे उद्धरण और
उपदेष दिये गये, जिससे छद्म पंथनिरपेक्षियों को बहुत
बल मिला और हिन्दुत्व को राष्ट्रीयता एवं पंथनिरपेक्षता की आधारभूमि मानने वाले
राष्ट्रवादियों के सिरों पर हर समय न्यायपालिका के आक्रोष की तलवार लटकी रहने लगी।
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