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Saturday 26 December 2015

मंगलमय हो 2016 का ब्रह्म मुहूर्त

संवेदनशील जीवन को ढूंढता जन जीवन

उम्मीदों के जश्न में ही बेहतर भविष्य की आशा


नये साल पर हार्दिक शुभ कामनाएं



दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत सबसे हटके विलक्षण और संवेदनशील है। सबसे पुराने इस प्रजातंत्र की स्वीकार्यता स्वाभाविक और सुदृड़ है। इसके ऊपर किसी प्रकार का भी संदेह करना, स्वीकार करना या सोचना भी गलत है। ऐसी ही अनेकों दुर्लभ विशेषताएं हैं जिसे गिनाना यहां कठिन हैं। जो दुनिया में भारत को विशिष्ट स्थान दिलाती हैं। अपनी इन्हीं चिरकालिक अलग पहचानों के बल पर अब भारत फिर से एक बार विश्व गुरू बनने की सोच रहा है। आप सोच रहे होंगे नये साल की शुरूआत राजनीतिक चिंतन के साथ ही क्यों ? तो यहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचार प्रसांगिक लगते हैं। गांधी जी की सोच सटीक थी। उनका कहना था। उन्हें राजनीति करने का कोई शौक नहीं। लेकिन वे राजनीति में फिर भी इसलिय सक्रिय है, क्योंकि राजनीति रूपी विषेला नाग समाज के ऊपर इस तरह पिंडली मारकर बैठ गया कि समाज के लिए उससे मुक्ति पाना नामुमकिन है।  इस विषैले साप का थोड़ा भी जहर मैं कम कर संकू तो मेरा सौभाग्य होगा। बस इसी सींख को ध्यान में रख नये साल के ऊषाकाल में राजनीति की दशा और दिशा पर अपनी सोच लोगों के सामने रखना कोई गलत बात नहीं ! राजनीति ईश्वरीय व्यवस्था के बाद इस दुनियां का सबसे बड़ा विनियामकीय क्षेत्र है। इसके भीतर समाज के सभी क्षेत्र समाहित हैं।

शुरू हो रहे नये साल 2016 के ऊषाकाल में राजनीति तेज गति से करवट ले रही है। प्रकृति में हो रहे परिवर्तनों के समान ही संवेदनशील राजनीति भी धीरे – धीरे गायब होती नजर आ रही है। अब राज नैतिक  न रहकर नीतिक होता जा रहा है। पहले कांग्रेस ने 65 सालों तक भ्रम में उलझाते हुएं देश को मूल्य विहीन बनाने में कोई कोर – कसर नहीं छोड़ी। अपना राजनीतिक हित साधती रहीं। 65 सालों तक देश एक दलीय वंशानुगत राजनीति का दंश झेलता रहा। दुनिया का ये सबसे विशाल लोकतंत्र अपनी एक ही टांग पर कराहता रहा। भारत को एक शक्तिशाली विपक्ष तक नहीं दे पाया। ऐसे में भारतीय जनसंख ने राजनीति के घोर अंधेरे में दीपक की लौ जलाई। लोग उसकी ओर आशा भरी नजरों से देखने लगें। स्वयं सेवकों ने ठंडे पानी में फूले हुए चने बिना नमक मिर्ची के खाकर श्रम किया।  लोग उनके साथ होते गयें। विरोधियों की यातनाएं सहीं। आलोचनाएं झेली। लेकिन एक ही मंत्र चरैवेति – चरैवेति।  कारवां बढ़ता गया। मेहनत रंग लायी। आज लगभग 39 अनुषांगिक संगठनों का संघपरिवार हैं। अब देश में उसके विचारों का राज भी है। भारत के प्रजातंत्र के पास सशक्त पक्ष – विपक्ष। विश्व का एक परिपक्व और पूर्ण लोकतंत्र। यहां संख्या बल के आधार पर पक्ष – विपक्ष को  शक्तिशाली न मानें। बल्कि नये – पुराने दल को भी याद रखें। कभी बीजेपी कांग्रेस की तरह ही नहीं उनसे भी बुरी स्थिति में थी।
पहले अटल बिहारी वाजपेयी 6 सालों तक गठबंधन के बल पर भारतीय प्रजातंत्र को राजनीति के संक्रमणकाल से बाहर निकालने में सफल रहे। उन्होंने एक वोट की भी किसी प्रकार की गलत व्यवस्था नहीं की। एक वोट के अभाव में भी अटल जी ने अपनी सरकार गिरने दी। इतना लंबा राजनीतिक संघर्ष झेलने के बाद भी अपने पास राजनीतिक लिप्सा को फटकने तक नहीं दिया। नैतिक राजनीति का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया। तब राज नैतिक बनने की आशा बलवती होने लगी। राज की नीति पीछे छुटती नजर आने लगीं। इसके बाद 2014 में लोकसभा के आम चुनावों में जनता ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को करारा जवाब दिया। एनडीए गठबंधन के साथ लड़ने के बावजूद पहली बार बीजेपी को अकेले पूर्ण बहुमत दिया। लोकसभा के इन चुनावों में उत्तरप्रदेश की जनता ने 85 सीटों में से 72 सीटें बीजेपी को देकर अपनी आशा को और अधिक स्पष्ट कर सर्वोपरि बना दिया। जहां वर्षों से विखंडित बहुमत आ रहा था। जिसके एकमत होने की किसी ने आशा तक नहीं की थी। संवेदनशील राजनीति पर फिर एक बार देश की आशा बलवती होने लगी। देश उत्साह, उमंग और स्फूर्ति महसूस करने लगा।

आज बीजेपी के शासन को लगभग पौन दो साल होने को आयें। मगर देश की जनता नये साल को मनाने के शुभ अवसर पर किसी ठोस परिणाम की बाट जोह रही हैं। पहले उसने दिल्ली विधान सभा चुनावों में आम आदमी पार्टी को अप्रत्याशित भारी बहुमत देकर बीजेपी की झोली में 70 में से केवल तीन सीट डालकर संकेत दिया। यहां तक कि बीजेपी के मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार किरण बेदी की जमानत तक जब्त करवा दी। इतने बड़े भरे – पूरे परिवार का कुनबा धरा का धरा रह गया। क्योंकि नैतिक मूल्यों की लौ आम आदमी पार्टी लेकर चल रह थी। जो कभी भारतीय जनता पार्टी की पूर्वज भारतीय जनसंघ लेकर चला करती थी। बीजेपी की इस हार के पीछे शायद सबसे बड़ा कारण टिकट वितरण में पार्टी के दीर्घकालीक स्थापित परम्पराओं की उपेक्षा रही हों। फिर बीजेपी के सामने बिहार में आया अपने धुर विरोधियों नीतिश और लालू का बेमेल जोड़। बिहार के विधान सभा चुनाव 2015 में तो बीजेपी अपनी पुरानी जमीन भी बचा पाने कामयाब नहीं हुई। पिछली बार से भी कम सीटों पर उसे संतोष करना पड़ा। इन विधान सभा चुनावों में बिहार की दम तोड़ती क्षेत्रीय राजनीति यहां नहीं जीती। बल्कि संवेदनशील राजनीति का झंडा लेकर यहां पहुंची बीजेपी के लड़खड़ाते कदमों को संभालने के लिए एक बार फिर जनता ने बीजेपी के कान जोर से फूंके। ताकि समय रहते इसे गुरू मंत्र समझ जागे। व्यक्ति निष्ठ बनने के प्रयास न करें। पार्टी निष्ठ ही बने रहे। उपलब्धि और कठिन समय दोनों सामूहिक हो। यशोगान में संगठन की भावना प्रतिध्वनित हो।


बिहार – दिल्ली विधान सभा चुनावों में जो हुआ वो हो भी क्यों न ?  प्रजातंत्र में सशक्त विपक्ष ही तो नियंत्रण का सर्वोच्च साधन होता है। वही तो है जो अपनी रचनात्मक भूमिका से शासन – प्रशासन को स्वच्छ बनाये रखने के साथ उसे सतर्क रख, गलत के प्रति आवाज उठाकर उसमें डर बनाये रखने का काम करता है। बीजेपी को देश की बागडौर सौंपकर अपनी नैतिक मूल्यों की धरोहर को आगे बढ़ाने का पूरा मौका तो देश की जनता ने उसे दिया है। राष्ट्रीय स्तर पर जनता तो उसके साथ हैं। मगर एक परिपक्व लोकतंत्र राज्यों में भी पूरी तरह बीजेपी को एक छत्र पताका सौंपकर कैसे निरंकुता की ओर बढ़ा सकता हैं ?  खिलखिलाते प्रजातंत्र में ये मतदाताओं की परिपक्वता नहीं तो क्या ?  इससे हमारे राजनीतिक दलों को देश में परिपक्व हो रही मतदाताओं की मानसिक आयु के प्रति आगाह हो जाना चाहिए !  लोकतंत्र परिणामनोम्खी मामले पर संवेदनशील होता है। वोटर उसे सत्ताहीन कर सकता है। चुनाव प्रोपेगण्डा के दौरान होने वाली लोक लुभावन बातें भविष्य नहीं संवार सकती। जनता को धरातल पर मूर्त रूप से महसूस होना चाहिए। देश के प्रत्येक व्यक्ति के खातें में आने वाले 15 लाख रूपयों की चर्चाएं भी अब ओझल होती जा रही हैं। महंगाई से आम आदमी की थरथराहट बढ़ती जा रही हैं। विदेश यात्राएं रोजमर्रा की बात हो जाने के कारण ये लोगों के ध्यान से हटाती जा रही हैं। इन पौने दो सालों में न कोई धरातल पर ठोस निवेश आया, और न ही रोजगार के अवसरों में कोई चमत्कारिक बढ़ोत्तरी हुईं। बस विश्व लेवल पर हमारे उत्साहवर्धक चुनाव परिणामों की एवज में हमारे प्रजातंत्र की झोली में सम्मान और वाहवाही आयें। ठोस आवक नहीं हुईं। पड़ोसी मुल्क से तक चुनावी दौरान हुई चर्चा अनुरूप न कोई संबंध सुधरें और न ही कोई ठोस प्रतिकार नजर आया। पूरी दुनिया में गोपनीय रखते हुए अटल जी द्वारा परमाणु विष्फोट के काम को अंजाम देने से बुद्ध मुस्कराया तो समझ में आता है। लेकिन मोदी जी द्वारा अपनों को विश्वास में लिए बिना अचानक पाकिस्तान जाने से तो लगता है नवाज जरूर मुस्कराया।

आर्थिक सुधार सर्वहारा वर्ग के लिए नींचे से शुरू करने से उन्हें महसूस होतें। ऊपर से होने वाले सुधार तो उन्हें केवल ढांढस ही बंधा पा रहे हैं। सपने जैसा ही लग रहे हैं। लगता है धैर्य की परीक्षा हो रही है। ऊपर से सुधार नींचे वालों के साथ होते तो स्थायीत्व आता। महसूस होत। विकास होता। हम सबका। राज करने वालों और जनता दोंनों का। विधायी कार्यों में भी कोई ठोस पहल नजर नहीं आती। न्यायिक नियुक्ति आयोग पर कानून बना तो उसे भी न्यायपालिका ने रद्द घोषित कर दिया। राज्य सभा में बहुमत न होने के बहाने से जनता को कोई लेनादेना नहीं। उसे ठोस आकार चाहिएं। जिसमें वो अपने आप को बेहतर तरीके से ढाल सकें। पुराने ही कानूनों की ही कमियों को टटोलने या उनमें सुधार के लिए सुधार के प्रयास करने से काम नहीं चलने वाला हमें समन्वय की राजनीतिक संस्कृति से परिणाम लाने होंगे। हमें अटल – अडवाणी जी की गंभीर संस्कृति को अपनाना होगा। अहं या अतिशय अनुशासन को नहीं आने देना होगा। कांग्रेस तो लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, भारतीय भू-सुधार अधिनियम, भारतीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, रोजगार गारंटी अधिनियम, सूंचना का अधिकार अधिनियम, शिक्षा का मूल अधिकार अधिनियम जैसे समय और लोकोपयोगी अधिनिय बनाकर अलग हो गई। प्रारंभिक दौर के चलते सही ढंग से क्रियान्वयन नहीं कर पायी। प्रभावी दायित्व अब बीजेपी के ऊपर हैं। वो अच्छे पुराने कानूनों को प्रभावी तौर पर क्रियान्वित कर सकती हैं या इनसे अच्छे समयोंपयोगी कानून बनाकर लागू कर सकती हैं। बीजेपी को समय मिला है। राजनीति में अछूतवाद जैसी कोई चीज नहीं होती वो भी लोकोपयोगी कानूनों के प्रति। कांग्रेस ने जरूर अछूतवाद किया। बीजेपी तो राजनीतिक अछूदवाद के विरूद्ध लड़ने वाली पार्टी हैं। उसने राजनीतिक अछूतवाद के विरूद्ध लंबा संघर्ष किया है। जम्मू एण्ड काश्मीर में पीडीपी जैसी अलगावादी पार्टी के साथ राज्य में सरकार बनाने के पीछे छिपे तर्क भी समझ से परे लगते हैं। वो भी एक वोट के लिए केन्द्र की सरकार गिरा देने वाली सत्यनिष्ठ पार्टी बीजेपी के लिए ऐसे बेमेल गठबंधन।
ऊपर से जम्मू एण्ड काश्मीर में होती बीजेपी की राजनीतिक किरकिरी। उसके स्थापित सिद्धांतों से ही परे लगती है। भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए लोकपाल एवं लोकआयुक्त अधिनियम के तहत राष्ट्रीय स्तर पर लोकपाल की नियुक्ति के लिए तो अब आम जनता को चर्चाएं तक सुनाई नहीं देती। नियुक्ति नसीब होना तो दूर। जबकि लोकपाल अधिनियम में लोकपाल की नियुक्ति के लिए तय एक साल की समय से काफी अधिक समय हो चुका है। मेरे राज्य में व्यापम काला सच जस का तस है। दूध और पानी कब  अलग होंगे पता नहीं। जबकि मध्यप्रदेश में बीजेपी लगातार 15 वर्षों तक शासन करने का रिकॉर्ड बनाने जा रही हैं। कार्यकर्ता राजनीतिक विलगाव के चलते अवसाद में चला जा रहा हैं। आंतरिक प्रजातंत्र के नाम पर कड़े अनुशासन के सहारे व्यक्तिनिष्ठ पहल सामने आ रही है। राजनीति संवेदनशील होने की बजाय अपनी नैतिक राह से भटक रही है।
आम जन जीवन पर हमारा सोचना लाजमि है। अब इससे आगे नये साल पर लिखने की कलम इजाजत नहीं देती। हां, नवंबर - 2015 में पेरिस में हुए अंतर्राष्ट्रीय ग्रीन सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग पर उठें ज्वलंत सवालों के चलते हम इस नये साल के अवसर पर हर व्यक्ति एक पौधा रोपकर अस्तित्व के संकट में पड़ते मानव जीवन को ये सर्वोतम् उपहार देकर नये साल के जश्न को झूमकर मना सकतें हैं। एक बेहतर भविष्य की आशा कर सकतें हैं। यहीं शुरू हो रहे नये साल 2016 को सर्वोत्म उपहार होगा। साथ ही हमारा सामाजिक और नैतिक कर्तव्य भी पूरा होगा।
                                       
  (इदम् राष्ट्राय स्वा:, इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम्)